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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

च॒त्वारो॑ मा पैजव॒नस्य॒ दानाः॒ स्मद्दि॑ष्टयः कृश॒निनो॑ निरे॒के। ऋ॒ज्रासो॑ मा पृथिवि॒ष्ठाः सु॒दास॑स्तो॒कं तो॒काय॒ श्रव॑से वहन्ति ॥२३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

catvāro mā paijavanasya dānāḥ smaddiṣṭayaḥ kṛśanino nireke | ṛjrāso mā pṛthiviṣṭhāḥ sudāsas tokaṁ tokāya śravase vahanti ||

पद पाठ

च॒त्वारः॑। मा॒। पै॒ज॒ऽव॒नस्य॑। दानाः॑। स्मत्ऽदि॑ष्टयः। कृ॒श॒निनः॑। नि॒रे॒के। ऋ॒ज्रासः॑। मा॒। पृ॒थि॒वि॒ऽस्थाः। सु॒ऽदासः॑। तो॒कम्। तो॒काय॑। श्रव॑से। व॒ह॒न्ति॒ ॥२३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:23 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:23


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा आदि क्या अनुष्ठान करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (पैजवनस्य) क्षमाशील रखनेवाले के पुत्र आपके जैसे (चत्वारः) चार ऋत्विज् (दानाः) देनेवाले (स्मद्दिष्टयः) जिनके निश्चित दर्शन (कृशनिनः) वा बहुत हिरण्य विद्यमान (ऋज्रासः) जो सरल स्वभाव (पृथिविष्ठाः) पृथिवी पर स्थित रहते हैं वे विद्वान् जन (निरेके) निःशङ्क राज्यव्यवहार में (मा) मुझे विधान करते हैं, स्थिर करते हैं (श्रवसे) विद्या सुनने के लिये (तोकाय) सन्तान के अर्थ (मा) मुझ (तोकम्) सन्तान को (वहन्ति) पहुँचाते हैं, वैसे उनके प्रति आप (सुदासः) सुन्दर दानशील हूजिये ॥२३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! वेदवेत्ता ऋत्विज् ब्राह्मण राजसहाय से यज्ञानुष्ठान से सब का निश्चित सुख बढ़ाते हैं और जैसे ब्रह्मचारी सन्तान के लिये ब्रह्मचर्य्य से पहिले विद्या पढ़ने के लिये विवाह कर सन्तान उत्पन्न करते हैं, वैसे राजजन और राजपुरुष सब के हित के लिये ब्रह्मचर्य्य से विद्या ग्रहण कराकर सब के सुख की उन्नति करें ॥२३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजादयः किमनुतिष्ठेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! पैजवनस्य ते यथा चत्वारो दानाः स्मद्दिष्टयः कृशनिन ऋज्रासः पृथिविष्ठा विद्वांसो निरेके मा नि दधति श्रवसे तोकाय च [मा] तोकं वहन्ति तथा तान् प्रति भवान् सुदासो भवेत् ॥२३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चत्वारः) ऋत्विजः (मा) माम् (पैजवनस्य) क्षमाशीलस्य पुत्रस्य (दानाः) दातारः (स्मद्दिष्टयः) निश्चिता दिष्टयो दर्शनानि येषान्ते (कृशनिनः) कृशनं बहुहिरण्यं विद्यते येषान्ते। कृशनमिति हिरण्यनाम। (निघं०१.२)। (निरेके) निःशङ्के राजव्यवहारे (ऋज्रासः) सरलस्वभावाः (मा) माम् (पृथिविष्ठाः) ये पृथिव्यां तिष्ठन्ति (सुदासः) शोभनदानः (तोकम्) अपत्यम् (तोकाय) अपत्याय (श्रवसे) विद्याश्रवणाय (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥२३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा वेदविद ऋत्विजो राजसहायेन यज्ञानुष्ठानात्सर्वेषां निश्चितं सुखं वर्धयन्ति यथा च ब्रह्मचारिणः सन्तानाय ब्रह्मचर्येण पूर्वं विद्याध्ययनाय च विवाहं विधायाऽपत्यमुत्पादयन्ति तथैव राजा राजपुरुषाश्च सर्वेषां हिताय सर्वान् सन्तानान् ब्रह्मचर्येण विद्या ग्राहयित्वा सर्वेषां सुखमुन्नेयुः ॥२३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! वेदवेत्ते ऋत्विज ब्राह्मण राज्याच्या साह्याने यज्ञानुष्ठान करून सर्वांचे सुख निश्चित वाढवितात. जसे ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्याने प्रथम विद्याध्ययन करून नंतर संतानासाठी विवाह करून संतान उत्पन्न करतात तसे राजजन व राजपुरुषांनी सर्वांच्या हितासाठी ब्रह्मचर्याने विद्या ग्रहण करवून सर्वांचे सुख वाढवावे. ॥ २३ ॥